इस वजह से हर साल गरीब बन जाते हैं साढ़े पांच करोड़ भारतीय

इस वजह से हर साल गरीब बन जाते हैं साढ़े पांच करोड़ भारतीय

सेहतराग टीम

घर में कोई बीमारी हो जाना कभी भी अच्‍छा नहीं होता। बीमारी से बचने, टालने के लिए हम हर संभव प्रयास करते हैं। हालांकि कई बार परिस्थितियों पर हमारा बस नहीं चलता और परिवार का कोई न कोई सदस्‍य किसी गंभीर बीमारी की चपेट में आ जाता है। एक औसत कमाई वाले भारतीय परिवार के लिए ये चुनौती की घड़ी होती है क्‍योंकि एक तो कोई करीबी किसी बीमारी से पीड़‍ित होता है और दूसरे, परिवार का पूरा बजट बीमारी के इलाज में बिगड़ जाता है।

अब एक नए अध्‍ययन से यह बात सामने आई है कि भारत में हर वर्ष साढ़े पांच करोड़ लोग इलाज के खर्च की वजह से गरीबी रेखा के नीचे पहुंच जाते हैं। पब्लिक हेल्‍थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के विशेषज्ञों द्वारा कराए गए इस अध्‍ययन के नतीजे ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित हुए हैं। इन विशेषज्ञों का दावा है कि कैंसर जैसी कोई गंभीर बीमारी एक औसत आय वाले भारतीय परिवार के बजट पर प्रलंयकारी असर डालती है।

इस अध्‍ययन के एक भाग के रूप मे विशेषज्ञों ने साल 1994 से 2012 तक के राष्‍ट्रीय उपभोक्‍ता खर्च सर्वेक्षणों का विश्‍लेषण किया। स्‍वास्‍थ्‍य अर्थशास्‍त्री शक्‍त‍िवेल सेल्‍वराज और हबीब हसन फारूकी ने साल 2014 में राष्‍ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) द्वारा किए गए ‘सामाजिक उपभोग: स्‍वास्‍थ्‍य’ सर्वे का भी विश्‍लेषण किया। विशेषज्ञों ने पाया कि कैंसर, डायबिटीज और हृदय रोग जैसे गैर संक्रामक रोगों पर स्‍वास्‍थ्‍य के मामले में भारतीय परिवारों की कमाई का ज्‍यादातर हिस्‍सा खर्च होता है।

विशेषज्ञों के अनुसार स्‍वास्‍थ्‍य पर खर्च को भारी-भरकम तब माना जाता है जब किसी परिवार का स्‍वास्‍थ्‍य खर्च उसके कुल उपभोग खर्च के कम से कम 10 फीसदी या उससे अधिक हो जाए। इस अध्‍ययन ने यह भी पाया है कि जो साढ़े पांच करोड़ लोग स्‍वास्‍थ खर्च की वजह से गरीबी रेखा से नीचे पहुंचते हैं उनमें से तीन करोड़ 80 लाख सिर्फ दवाओं पर होने वाले खर्च के कारण इस रेखा से नीचे पहुंच जाते हैं।

विशेषज्ञों ने यह भी रेखांकित किया है कि सरकार द्वारा बड़ी संख्‍या में जरूरी दवाओं को मूल्‍य नियंत्रण सूची में शामिल करने के बावजूद आज भी 80 फीसदी खुदरा दवा बाजार किसी भी तरह के नियंत्रण से बाहर है। यहां तक कि सरकार की बहुप्रचारित जन औषधि दवा दुकानों में जरूरी दवाएं उपलब्‍ध ही नहीं होती हैं। सरकार इस तरह की 3000 दवा दुकानों को संचालित करने का दावा करती है जहां जरूरी दवाओं के जेनरिक वर्जन बेहद कम मूल्‍य पर उपलब्‍ध कराए जाते हैं। हालांकि आम लोगों को अकसर इन दुकानों पर उनके काम की दवा नहीं मिलती है।

इस अध्‍ययन का निष्‍कर्ष है कि एक अभावग्रस्‍त सरकारी जन स्‍वास्‍थ्‍य व्‍यवस्‍था में बहुसंख्‍यक भारतीय परिवारों के पास निजी हेल्‍थकेयर की शरण में जाने के अलावा कोई चारा नहीं बचता और ऐसे में भारतीय जनता का बड़ा हिस्‍सा महंगी दवाओं पर खर्च करने के लिए मजबूर है।

(मिररनाउ से साभार)

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